समर्थन और प्रतिरोध बनाने के तरीके

जन एकता जन अधिकार आंदोलन ने किया 8 जनवरी की मजदूर-किसान-छात्र हड़ताल का समर्थन, 30 करोड़ लोग लेंगे हिस्सा
रायपुर, 05 जनवरी 2019. बीस करोड़ मजदूरों, किसानों, खेत मजदूरों, छात्रों, नौजवानों, महिलाओं, दलितों और आदिवासियों की सदस्यता का प्रतिनिधित्व करने वाले वाले 200 से अधिक संगठनों के राष्ट्रीय मंच जन एकता जन अधिकार आंदोलन ने जनविरोधी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और देशविरोधी नागरिकता कानून के खिलाफ आगामी 8 जनवरी को प्रस्तावित देशव्यापी मजदूर-किसान हड़ताल का समर्थन किया है और देशवासियों से इसे सफल बनाने की अपील की है।
इस आंदोलन के साथ जुड़े संगठनों के नेताओं ने आज यहां जारी एक बयान में संघ-संचालित भाजपा सरकार द्वारा बनाये गए नागरिकता कानून को जनविरोधी और संविधानविरोधी करार देते हुए कहा है कि इससे हमारे देश के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को अपूरणीय क्षति पहुंचेगी। इसके साथ एनसीआर की जारी प्रक्रिया के जुड़ने से देश के लाखों मेहनतकशों का जीवन संकट में फंस जाएगा। हमारे देश के लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों और संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के संघर्ष में यह आम हड़ताल एक महत्वपूर्ण पड़ाव है।
नागरिकता कानून के खिलाफ वामपंथी पार्टियों, कई सामाजिक संगठनों और मंचों द्वारा चलाये जा रहे आंदोलनों का तानाशाहीपूर्ण तरीके से धारा 144 लागू करके, सार्वजनिक परिवहन को बंद करके, इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाकर और पुलिस बर्बरता के जरिये दमन किये जाने की जन अधिकार आंदोलन ने तीखी निंदा करते हुए कहा है कि निकट भविष्य में हमारे नागरिकों के शांतिपूर्ण आंदोलन करने के जनवादी अधिकारों को ही प्रतिबंधित किये जाने की निशानी है। इस सिलसिले में पिछले चार माह से जम्मू-कश्मीर की जनता के अधिकारों पर जारी हमलों को नहीं भूला जाना चाहिए।
जन अधिकार आंदोलन ने कहा है कि भाजपा सरकार जिन जनविरोधी-देशविरोधी कॉर्पोरेटपरस्त आर्थिक नीतियों को लागू कर रही है, उसके दुष्प्रभाव के खिलाफ आम जनता के तमाम तबके सड़कों पर है। यह कदम इसी से आम जनता का ध्यान भटकाने के लिए है।
8 जनवरी की आम हड़ताल (8 January general strike) के जरिये सबको रोजगार, महंगाई रोकने, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, न्यूनतम वेतन, सबको पेंशन, रेलवे और प्रतिरक्षा उद्योग सहित सार्वजनिक उद्योगों के निजीकरण पर रोक लगाने, सबको समान शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा, श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलाव को रोकने, किसानों के लिए लाभकारी समर्थन मूल्य और संविधानविरोधी नागरिकता कानून को वापस लेने की मांग की जा रही है। जन अधिकार आंदोलन ने इन मांगों का समर्थन करते हुए आशा व्यक्त की है कि इस दिन आम जनता के प्रतिरोध का असली चेहरा देखने को मिलेगा। इस आम हड़ताल में 30 करोड़ लोगों की हिस्सेदारी की उम्मीद की जा रही है।
समर्थन और प्रतिरोध बनाने के तरीके
पटना : जन अधिकार पार्टी (लो) के राष्ट्रीय अध्यक्ष सह पूर्व सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने कहा कि राज्य सरकार की मंशा दरोगा बहाली में महिला अभ्यर्थियों के साथ इंसाफ की नहीं है, जिस कारण ही 160 सेंटीमीटर लंबाई का मानक रखा गया है। जबकि पूर्व में बहाली 155 सेंटीमीटर तक की हुई थी। आज अगर न्यायालय नहीं होता तो सरकार और निरंकुश हो जाती।
सांसद ने उक्त बातें आज सचिवालय थाना द्वारा जारी गिरफ्तारी वारंट पर पटना सिविल कोर्ट से जमानत मिलने के बाद पत्रकारों से बातचीत में कही। उन्होंने कहा कि राज्य में शिक्षकों का समर्थन करना क्या गुनाह है? अगर राज्य सरकार शिक्षकों के वेतन और दरोगा बहाली में अनियमितता नहीं की होती तो आज आंदोलन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। कहीं ना कहीं राज्य सरकार आम जनों के साथ – साथ छात्रों एवं शिक्षकों के हितों के साथ खिलवाड़ कर रही है जिसका हर स्तर पर पार्टी के द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन जारी रहेगा। हमें न्यायालय और संविधान पर पूरा भरोसा है। हम उसी के दायरे में जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ाई आगे भी जारी रखेंगे।
गौरतलब है कि विगत दिनों पटना के मुख्यमंत्री सचिवालय के समक्ष महिला दरोगा अभ्यर्थियों के मामले को लेकर धरना प्रदर्शन के खिलाफ सचिवालय थाना में 5 छात्र नेताओं सहित पप्पू यादव को नामजद किया गया था। इस मामले में पांच छात्र नेताओं को भी गिरफ्तार किया गया था। जबकि पप्पू यादव के खिलाफ आनन-फानन में सचिवालय थाना ने गिरफ्तारी का वारंट ले ली थी। आज उसी मामले को लेकर पप्पू यादव न्यायालय के समक्ष हाजिर होकर कर जमानत की मांग की, जिसे न्यायालय ने मंजूरी दे दी।
वहीं, दूसरी ओर पार्टी के राष्ट्रीय प्रधान महासचिव एजाज अहमद ने न्यायालय के फैसले का स्वागत किया और कहा कि माननीय अध्यक्ष पप्पू यादव और हमारी पार्टी जनहित के मुद्दे पर संघर्ष करती है और आगे भी करेगी। इसी क्रम में राज्य शिक्षक संघर्ष समिति के द्वारा जिला मुख्यालय पर 14 सितंबर 2019 को आयोजित प्रतिरोध दिवस के कार्यक्रम में भी पार्टी के सभी जिला इकाई इस आंदोलन में शामिल होकर पूरी मजबूती से संघर्ष करेगी। उन्होंने कहा कि अफसोस इस बात का है कि बिहार सरकार बदले की भावना के तहत पप्पू यादव के द्वारा किसी भी संगठन के आंदोलन और संघर्ष में साथ देने पर इन्हें झूठे मुकदमे में फंसा कर तंग करने की नीति अपनाई जा रही है। यह निंदनीय है और शिक्षकों के हर जायज मांगों को मजबूती के साथ समर्थन देने का पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने फैसला लिया है।
नए मोटर वाहन अधिनियम का चालान राशि को कम करे राज्य सरकार : रजनीश तिवारी
वही नए मोटर वाहन कानून पर मनमाना चलान वसूलने को लेकर जन अधिकार पार्टी (लो) के युवा परिषद के प्रदेश प्रवक्ता रजनीश कुमार तिवारी ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा कि राज्य में बेरोजगार छात्रों - युवाओं से नये ट्रैफिक कानून के नाम पर मनमाना राशि वसूला जा रहा हैं। यहां तक सभी कागजात होने पर भी जबरन डरा धमकाकर पैसा वसूला जा रहा है, जो ठीक नहीं है। इस काले कानून से सुरक्षा के नाम पर परेशान किया जा रहा और मध्यम, गरीब व आम आदमी से पैसा उगाही किया जा रहा है। जबकि वीआईपी व्यक्ति से किसी भी समर्थन और प्रतिरोध बनाने के तरीके प्रकार की कोई चेकिंग औऱ उनका चलान नहीं काटा जा रहा है।
उन्होंने राज्य सरकार से मांग करते हुए कहा कि बिहार सरकार को गुजरात सरकार की तरह ही वाहन चलान की राशि को कम करना चाहिय और हेलमेट, शूज औऱ सीटबेल्ट फाइन को 1000 रूपय की जगह 500 रुपय कर देना चाहिये। ताकि लोगो को सबक भी मिले और मनमाना राशि भी न वसूला जाये। सरकार बगैर हेलमेट पहने व्यक्ति को वाहन चलाने और असुरक्षा के प्रति इतनी ही चिंतित है तो बगैर हेलमेट के फाइन काटते वक्त फाइन देने वालो को हेलमेट भी दिया जाना चाहिए, ताकि उसे भी एहसास हो की प्रसाशन और सरकार उसकी भलाई के लिए यह कर रही नाही की पैसों की उगाही के लिए।
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यह समझने की ज़रूरत है कि घाटी में आतंकियों के प्रति समर्थन क्यों बढ़ रहा है?
इस वक़्त बड़ी चुनौती आतंकियों पर दबाव बनाने की है. इसके लिए समझदारी की ज़रूरत है लेकिन यह सेना प्रमुख के बयान और मोदी सरकार के इससे निपटने के तरीके में कम ही दिखता है. The post यह समझने की ज़रूरत है कि घाटी में आतंकियों के प्रति समर्थन क्यों बढ़ रहा है? appeared first on The Wire - Hindi.
इस वक़्त बड़ी चुनौती आतंकियों पर दबाव बनाने की है. इसके लिए समझदारी की ज़रूरत है लेकिन यह सेना प्रमुख के बयान और मोदी सरकार के इससे निपटने के तरीके में कम ही दिखता है.
सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत. (फोटो: पीटीआई)
एक हॉलीवुड फिल्म का मशहूर डायलॉग है, ‘विथ ग्रेट पावर कम्स ग्रेट रिस्पॉन्सिबिलिटी’ यानी बड़ी ताकत के साथ बड़ी ज़िम्मेदारियां भी आती हैं. नए सेना प्रमुख बिपिन रावत शायद अभी यह सीख ही रहे हैं कि जब आप उच्च पद पर हों, तब आपका सोच-समझकर बयान देना कितना ज़रूरी हो जाता है.
इस बात में कोई शक़ नहीं है कि घाटी में सेना के ऑपरेशन के समय बाधा डालने वालों या किसी एनकाउंटर में उनका सहयोग न करने वालों को ‘आतंकियों जैसा ही समझना’ वाला उनका बयान ग़ुस्से में दिया गया था, पर इस बयान में अतिरेक है यह स्पष्ट नज़र आता है. साथ ही यह कानूनी मानकों के अनुरूप भी नहीं है. ख़ासकर उनका यह सोचना कि आईएसआईएस या पाकिस्तान के झंडे दिखाना आतंकवाद के समकक्ष आता है.
उनका प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ कड़ा समर्थन और प्रतिरोध बनाने के तरीके क्रदम उठाने की चेतावनी देना जवाब से ज़्यादा सवाल खड़े करता है, क्योंकि सेना की भाषा में समझें तो ‘कड़े कदम’ का मतलब ‘शूट टू किल’ समझा जा सकता है.
कोई भी स्वाभिमानी सेना निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियां नहीं बरसाएगी, भले ही वे पत्थरबाज़ी कर रहे हों; उनका कर्तव्य हथियारबंद आतंकवादियों से निपटना है न कि आम प्रदर्शनकारियों से.
आम जनता से निपटने की ज़िम्मेदारी पुलिस की है. किरण रिजिजू का रावत के बयान के समर्थन में आकर यह कहना कि ‘एक्शन उनके ख़िलाफ़ लिया जाएगा जो राष्ट्रहित में काम नहीं करते क्योंकि राष्ट्रहित सर्वोपरि है’ बिल्कुल मूर्खतापूर्ण है.
राष्ट्रहित की किसी भी दुहाई से आप निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर चलाई गईं गोलियों को उचित नहीं ठहरा सकते, और अगर देखा जाए तो ऐसा करना एक वॉर क्राइम तो होगा ही, साथ ही राष्ट्रविरोधी भी होगा.
सेना प्रमुख हाल ही में घाटी में लगातार जान गंवा रहे सैनिकों की बढ़ती संख्या को लेकर चिंतित हैं. पर इसके दो कारण हैं. पहला तो ये कि सुरक्षा बल सर्दियों में घाटी के सीमा से सटे इलाकों में उन आतंकवादियों को पकड़ने के लिए ऑपरेशन लॉन्च करते हैं जो मौसमी कारणों से जंगल से निकलने को मजबूर होंगे.
दूसरा, सरकार और सुरक्षा बलों ने कश्मीर समस्या को लेकर अपना रुख़ इतना सीमित कर लिया है कि आतंकवाद-विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए कोई सार्थक उपाय निकालने की बजाय डंडे के ज़ोर से स्थितियां बदलने की कोशिश की जा रही है.
यहां सबसे ज़्यादा ज़रूरी है पूरे मुद्दे को समझना. पत्थरबाज़ी हिंसक है पर आप इसकी तुलना हथियारों से लैस आतंवादियों से नहीं कर सकते. हथियारबंद आतंकियों से बदूंक के ज़रिये ही निपटा जा सकता है जबकि पत्थर फेंकने वालों से निपटने का तरीका कुछ भी हो पर गोलियां बरसाना तो नहीं हो सकता.
एक और बात, कश्मीर में सरकार-विरोधी हर अतिवादी आतंकवादी नहीं है. हां, पर जो जान-बूझकर सामान्य नागरिकों को अपना निशाना बनाते हैं, उन्हें आतंकवादी कहा जा सकता है.
इसका अर्थ यह है कि आप बुरहान वानी की मौत के लिए सुरक्षा बलों को दोषी नहीं मान सकते. बुरहान ख़ुद को जिहादी कहा करता था और मरो या मारो की नीति पर चलता था. पर फिर भी उसे ‘आतंकवादी’ कहना ग़लत होगा क्योंकि हमारे लिए भले ही वो एक ग़लत रास्ते पर चला गया युवक हो, उसके और घाटी के ढेरों लोगों के दिमाग में उसकी छवि एक सैनिक की थी, जो किसी कारण विशेष के लिए लड़ रहा था.
और जहां तक मेरी जानकारी है वानी और उसके साथी आतंकियों ने कभी मासूमों को अपना निशाना नहीं बनाया. कश्मीरी अलगाववादियों को कमज़ोर करने की गरज़ से उनके लिए ‘आतंकी’ शब्द प्रयोग करने से मुश्किल कम होने की समर्थन और प्रतिरोध बनाने के तरीके बजाय बढ़ेंगी ही.
यह अनुचित तो होगा ही साथ ही इससे ग़लत परिणाम ही सामने आएंगे. इस मामले पर कोई स्पष्ट नज़रिया न रखकर सरकार अपने लिए ही मुश्किलें खड़ी कर रही है. ये ठीक है कि वो आतंकियों से बातचीत की उम्मीद नहीं कर सकते पर अतिवादियों से तो इसकी गुंजाइश है. (याद करें डोवाल की एनएससीएन (आईएम) से बातचीत)
किसी हिंसक नागरिक विरोध का हिंसक हथियारबंद आतंकवाद में तब्दील हो जाना कोई अच्छा संकेत नहीं है. जनरल रावत का आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन में बाधा डालने वालों को चेताना बिल्कुल जायज़ है.
ऐसा कई बार हो जाता है कि किसी मुठभेड़ के समय बड़ी भीड़ इकट्ठी होकर प्रदर्शन करने लगती है. यह रिस्की तो है ही साथ ही यह भी दिख जाता है कि इस ऑपरेशन में बाधा डालने के उद्देश्य से यह भीड़ जमा हुई है. अगर इस तनाव भरे माहौल में ग़लती से ही किसी ग्रेनेड या एके-47 का निशाना चूक जाए तो तबाही हो सकती है.
शायद नागरिक संस्थाओं और सुरक्षा बलों को इस स्थिति से निपटने का कोई दूसरा रास्ता तलाशने की ज़रूरत है. हालांकि यहां एक परेशानी और है कि वर्तमान में मारे गए कई आतंकी कश्मीरी ही हैं और जब भी ये मारे जाते हैं तब आसपास रहने वाले इनके परिजन और रिश्तेदार ग़ुस्सा हो जाते हैं.
दूसरी ओर, केंद्र सरकार के रवैये पर भी कई सवाल खड़े होते हैं. सरकार ने आतंकवादियों से निपटने का एकआयामी तरीका ही बना रखा है जिसमें इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता कि जिस कारण के लिए वो (आतंकी) लड़ने का दावा करते हैं, उस पर उन्हें जनता से कितना समर्थन मिला हुआ है.
देश के कई तथाकथित सेंट्रल इंटेलिजेंस विशेषज्ञ भारत के इस ‘इज़रायली’ तरीके को सही मानते हैं पर भारत और इज़रायल की स्थितियों में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है. वहां लगातार हुए सेना ऑपरेशनों के चलते किसी को कोई उम्मीद नहीं रह गई है कि कभी इन स्थितियों में कोई सुधार होगा और शायद इसीलिए इज़रायली कोई राजनीतिक वार्ता भी नहीं चाहते.
इसके अलावा विरोध से निपटने का एक दूसरा श्रीलंकन तरीका भी है जहां ‘स्कॉर्च्ड अर्थ पॉलिसी’ पर काम किया जाता है. इस नीति के अंतर्गत जहां भी विद्रोह उपजता है वहां के सभी संसाधनों को नष्ट कर दिया जाता है या फ़सलों को आग लगा दी जाती है, जिसका नतीजा बेकसूर भुगतते हैं, हज़ारों लोग विस्थापितों का जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं.
पाकिस्तानियों का तरीका भी कुछ ऐसा ही है. जहां भी वे हमला करने के लिए पहुंचते हैं, वहां से पहले सामान्य नागरिकों को हटा दिया जाता है. घाटी में आतंकवाद की समस्या वज़ीरिस्तान या श्रीलंका जितनी ख़राब कभी नहीं हुई. आज उन आतंकियों के पास ज़्यादा से ज़्यादा एके-47 और ग्रेनेड होंगे. ऐसे में इज़रायली या श्रीलंकाई तरीका प्रयोग में लाना हथौड़े से मक्खी मारने जैसा होगा, जिसके परिणाम भीषण होंगे.
इस वक़्त सबसे बड़ी चुनौती आतंकियों पर दबाव बनाए रखने की है. इसके साथ ही राजनीतिक तरीकों से उन्हें कमज़ोर करने के बारे में भी सोचा जा सकता है. इसके लिए समझदारी और धैर्य की ज़रूरत है जो वर्तमान मोदी सरकार के इस समस्या से निपटने के तरीके में कम ही दिखता है.
इसलिए परिणाम यह है कि स्थितियां 1997-2004 जैसी हो चुकी हैं, जब हर साल सुरक्षा बलों के सैकड़ों जवान अपनी जान गंवा देते थे. साल 2000 में तो जवानों की मौत का यह आंकड़ा 638 तक पहुंच गया था. 2007 से 2012 के बीच यह आंकड़ा 100 से 17 पर पहुंच गया था.
यहां प्रशासन को यह सोचने की ज़रूरत है कि क्यों बीते दो सालों में इन आतंकियों को घरेलू समर्थन बढ़ा है, क्यों जनता जान-बूझकर उन जगहों पर भीड़ बनकर इकट्ठी हो जाती है जहां गोलीबारी या मुठभेड़ चल रही होती है.
सरकार में बैठे मंत्री कहते हैं कि लोगों को पत्थर फेंकने के लिए पाकिस्तान द्वारा पैसा दिया जाता है पर ऐसा सोचने वाली बात है कि क्या कोई निहत्थी भीड़ जान हथेली पर रखकर सेना द्वारा चलाई जा रही गोलियों के बीच पैसे के लिए सेना पर ही पत्थर फेंकने आ सकती है?
सरकार को चिंतन करने की ज़रूरत है. उन्हें इससे भी बचना है कि कहीं 1993 में बिजबेहारा जैसी कोई घटना न दोहराई जाए, जहां प्रदर्शनकारियों की निहत्थी भीड़ पर गोलियां चलवानी पड़ें. 1993 में बिजबेहारा में हुई वो घटना आज भी देश की छवि पर कलंक है.
पाटीदारों का पराक्रम और पटेल का दमखम
गुजरात में अगले महीने होने वाले चुनावों के बाद भूपेंद्र पटेल के राज्य का मुख्यमंत्री बनने की व्यापक संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि उनमें और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में काफी समानताएं हैं। वर्ष 2001 में जब मोदी राज्य में शीर्ष पद पर आसीन हुए उस समय उनके पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।
पटेल के साथ भी ऐसा ही है। पहली बार विधायक बने और उन्हें शीर्ष पद के लिए चुन लिया गया। मोदी ने कच्छ में आए भूकंप के कारण हुए भारी सार्वजनिक विनाश के बीच पदभार संभाला था। 13 सितंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद पटेल ने भी बाढ़ प्रभावित जिलों जामनगर, जूनागढ़ और राजकोट में राहत और बचाव कार्यों की खुद निगरानी की।
उन्होंने इस बात को सिरे से नकार दिया कि गुजरात उन राज्यों में से एक है जहां कोविड-19 महामारी से सबसे खराब तरीके से निपटा गया था। गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बरजोर पारदीवाला ने भी अहमदाबाद सिविल अस्पताल को 'कालकोठरी' तक कह दिया था जहां उनके मुताबिक लोगों को मरने के लिए भेजा गया था।
हालांकि दोनों नेताओं में अंतर भी है। जब मोदी ने केशुभाई पटेल की जगह ली तब ताकतवर माने जाने वाले पाटीदार जाति के समर्थक उनके खिलाफ आ गए और सबने यह कहते हुए निशाना साधा कि पिछड़ी जाति तेली समुदाय का एक व्यक्ति मुख्यमंत्री पद पर काबिज होने में कामयाब रहा जो जाति गुजरात के बाकी हिस्सों में लगभग अनजान ही मानी जाती है।
हालांकि भूपेंद्र पटेल पाटीदार समुदाय के पटेल हैं, लेकिन इस बात में संदेह है कि अहमदाबाद से परे पाटीदार समुदाय के लोग उन्हें अपना नेता मानेंगे या नहीं।
भूपेंद्र पटेल को एक और कार्यकाल के लिए अनौपचारिक रूप से फिर से समर्थन देकर, भाजपा स्पष्ट रूप से जातीय दबाव में आते हुए दिख रही है। गुजरात की राजनीति में पाटीदार उतने ही ताकतवर हैं, जितने महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा। शुरुआती दौर में सरदार पटेल के प्रभाव में पाटीदार नेतृत्व, कांग्रेस के प्रति जी जान से से वफादार था। यह अलग बात है कि गुजरात के पहले चार मुख्यमंत्री सभी ब्राह्मण थे।
1973 में चिमनभाई पटेल ने बगावत का झंडा बुलंद किया। वह पहले पाटीदार मुख्यमंत्री बने लेकिन वह कांग्रेस से जुड़े थे। हालांकि, वह पाटीदार आधार को मजबूत नहीं कर सके। बहुत बाद में, एक और पटेल उपमुख्यमंत्री बने और जल्द ही पाटीदारों के निर्विवाद नेता बने।
वह नेता केशुभाई पटेल ही पाटीदारों को भाजपा से जोड़ने के लिए जिम्मेदार थे। आंदोलन की शुरुआत सौराष्ट्र से हुई जिससे पाटीदार नेतृत्व का केंद्र मध्य गुजरात से हटकर सौराष्ट्र स्थानांतरित हो गया।
इत्तफाक से उन्हीं दिनों सूरत में हीरा पॉलिशिंग का उभार एक उद्योग के तौर पर हुआ और इनसे जुड़ने वालों में से अधिकांश सौराष्ट्र के प्रवासी थे। धन, बल और राजनीतिक शक्ति के मेल के साथ ही पाटीदार प्रभुत्व का एक दौर शुरू हुआ जिसका भाजपा के विकास और गुजरात की वृद्धि में योगदान था। यह सब तब तक होता रहा जब तक कि नरेंद्र मोदी तस्वीर में नहीं आए।
नरेंद्र मोदी के उभार के खिलाफ प्रतिरोध और नाराजगी दूर होती गई। हालांकि इसके लिए काफी हद तक आनंदीबेन पटेल के प्रभाव को श्रेय दिया जा सकता है। उन्हें मोदी के प्रतिनिधि के रूप में पहचाना जाने लगा और पाटीदारों को धीरे-धीरे विश्वास हो गया कि उनका प्रभुत्व जारी रहेगा।
इसके बाद आनंदीबेन को मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन उनकी जगह नितिन पटेल को मुख्यमंत्री बनाने के बजाय जब जैन समुदाय से ताल्लुक रखने वाले विजय रूपाणी को पद दिया गया तो पाटीदारों ने आम आदमी पार्टी (आप) का समर्थन कर अपना गुस्सा जाहिर किया। हालांकि आप के लिए बहुत अधिक सीटें पाना मुश्किल हो सकता है, लेकिन उसकी बढ़ती वोट हिस्सेदारी भविष्य में उसे सत्ता के लिए महत्त्वपूर्ण दावेदार बना सकती है।
मोदी की तरह भूपेंद्र पटेल भी अपने ही बलबूते सत्ता में आए हैं लेकिन इस वक्त दिल्ली का हस्तक्षेप स्पष्ट है। उनके दाहिने हाथ माने जाने वाले ध्रुमिल पटेल को उनकी पदोन्नति के कुछ महीनों के भीतर ही बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि उन पर पुलिस पोस्टिंग को 'प्रभावित' करने के आरोप लगे। प्रधानमंत्री कार्यालय की 'सलाह' के बाद यह बर्खास्तगी की गई।
इस बीच पटेल ने मंत्रियों से कहा है कि पार्टी की वजह से वे इस पद पर पहुंचे हैं। इसलिए उन्हें भी पार्टी के लिए काम करने की जरूरत है। उनके प्रशासनिक हस्तक्षेप के केंद्र में आम लोग ही रहे हैं जिनके लिए आठ जिलों में नल के पानी की आपूर्ति, जैविक खेती का समर्थन करने के लिए 100 करोड़ रुपये का कोष बनाने, आधुनिक सार्वजनिक बस परिवहन प्रणाली में सुधार करने जैसी पहल की गई। इसके अलावा गुजरातियों की कारोबारी दक्षता के अनुरूप ही सेमीकंडक्टर और फैब्स के लिए वेदांत-फॉक्सकॉन का 1.54 लाख करोड़ रुपये का निवेश हासिल किया गया है जिसकी वजह से पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र हाथ मलते रह गया।
डिफेंस एक्सपो कुछ हफ्ते पहले गुजरात में आयोजित किया गया था और यह उन कंपनियों तक सीमित था जिनके पास पहले से ही भारत में विनिर्माण क्षमता है (जो डिफेंस एक्सपो की निवेश-बढ़ाने की क्षमता को कुछ हद तक कम करता है) और यह अच्छी तरह से प्रबंध किया गया कार्यक्रम था।
उनके सभी प्रयासों का दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व ने मजबूती से समर्थन किया है और यह आधी लड़ाई है। राजनीतिक सत्ता के लिए महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले विजय रुपाणी, नितिन पटेल और भूपेंद्र सिंह चूड़ास्मा इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। इस तरह शीर्ष पद के लिए भविष्य के संभावित दावेदारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। भाजपा के 30 से अधिक मौजूदा विधायकों के टिकट कट गए हैं। संभव है कि पटेल इनमें से कुछ वफादारों को सरकार में जोड़ लें। साथ ही कांग्रेस से भाजपा में शामिल होने नेताओं के आने का सिलसिला लगातार जारी है।
वर्ष 2017 में भाजपा ने सरकार जरूर बनाई, लेकिन पार्टी के पास दो दशकों में सबसे कम विधायक (99 विधायक) थे। इसने बाद के चुनाव जीते और अपनी संख्या बढ़ाने में कामयाब रही। इस बार चुनौती अभूतपूर्व परिणाम दर्ज करने की है। भूपेंद्र पटेल वास्तव में दिल्ली के शीर्ष नेतृत्व के हस्तक्षेप से कभी मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन अगर वह गुजरातियों का दिल जीत लेते हैं और भाजपा की सीटों की संख्या में काफी सुधार कर लेते हैं तो वह यह साबित जरूर कर देंगे कि उन्हें गंभीरता से देखा जाना चाहिए।