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घाटे का सौदा

घाटे का सौदा

घाटे का सौदा करना Meaning in English & Translation

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एमएसपी मिलने पर भी महाराष्ट्र के किसानों के लिए घाटे का सौदा

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | महाराष्ट्र के लगभग 6 लाख किसानों को राज्य सरकार ने बड़ा झटका दे दिया है. इस बार यानी खरीफ मार्केटिंग सीजन 2021-22 में यहां पर धान उत्पादकों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Prices) पर बोनस नहीं मिला है. जबकि पिछले कुछ वर्षों से यहां के किसानों को एमएसपी पर बोनस दिया जा रहा था. साल 2020 में भी किसानों को तय एमएसपी से 700 रुपये प्रति क्विंटल अतिरिक्त दाम बोनस के रूप में दिया गया था. राज्य सरकार के इस फैसले को लेकर किसानों (Farmers) में गुस्सा है और अब कृषि मंत्री को इस बारे में जवाब घाटे का सौदा नहीं देते बन रहा है. यहां पर 20 मार्च तक सिर्फ 13.36 लाख मिट्रिक टन धान की खरीद (Paddy Procurement) हुई है जो पिछले दो साल में सबसे कम है. यहां के किसानों को 13 मार्च तक धान की एमएसपी के रूप में 2618 करोड़ रुपये मिले हैं, लेकिन यह उनकी उत्पादन लागत से भी कम है.

सवाल ये है कि आखिर एमएसपी मिलने पर भी महाराष्ट्र के किसानों के लिए धान की खेती क्यों घाटे का सौदा है. क्यों उन्हें एमएसपी पर बोनस की दरकार है वो भी 700 से 1000 रुपये प्रति क्विंटल तक. हमने इसका जवाब तकनीकी पहलुओं के जरिए तलाशने की कोशिश की. दरअसल, केंद्र सरकार ने 2021-22 के लिए धान की औसत उत्पादन लागत को प्रति क्विंटल 1293 रुपये माना है. उस पर 50 परसेंट लाभ जोड़कर इसका एमएसपी 1940 रुपये क्विंटल तय किया गया है. जबकि महाराष्ट्र में प्रति क्विंटल धान की लागत 2971 रुपये प्रति क्विंटल आती है. यह देश में सबसे अधिक है. इस बात की तस्दीक खुद कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने की है. इसलिए यहां के किसानों को बोनस न मिले तो उन्हें भारी घाटा होगा.

महाराष्ट्र के किसान नेता एवं पूर्व विधायक वामनराव चतप ने टीवी-9 डिजिटल से बातचीत में कहा कि किसानों ने धान की एमएसपी पर कम से कम 700 रुपये प्रति क्विंटल बोनस देने की मांग की थी. लेकिन सरकार ने अब तक एक भी रुपये नहीं दिए. हम बोनस इसलिए मांग रहे हैं क्योंकि हमारे यहां धान की उत्पादन लागत सबसे ज्यादा है.

उन्होंने बताया कि कोंकण के चार और विदर्भ के पांच जिलों और नासिक के कुछ हिस्सों में धान की खेती होती है. बोनस न मिलने की वजह से भंडारा, गोदिया, गढचिरौली, चंद्रपुर, नागपुर का कुछ हिस्सा, रायगढ, रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग एवं पालघर के किसान ठगे हुए महसूस कर रहे हैं. उधर, कुछ महीने पहले महाराष्ट्र के शिवसेना सांसद कृपाल तुमाने ने 1000 रुपये प्रति क्विंटल बोनस की मांग उठाई थी.

किसी के भी मन में यह सवाल उठ सकता है कि जब महाराष्ट्र में धान उत्पादन (Paddy Production) इतना महंगा है तो फिर इसकी खेती छोड़कर किसान दूसरी फसल क्यों नहीं लगाते. इसका जवाब महाराष्ट्र के किसान नेता डॉ. अज‍ित नवले देते हैं. उनके मुताबिक यहां के किसान मजबूरी में धान की खेती कर रहे हैं. धान की ज्यादातर पैदावार आदिवासी और उन क्षेत्रों में हो रही है जहां बारिश ज्यादा होती है. उन स्थानों पर, प्याज, सोयाबीन और कपास की फसल नहीं हो सकती. धान की उत्पादकता भी कम है.

इस बारे में हमने महाराष्ट्र के कृषि मंत्री दादाजी भुसे से बातचीत की. उन्होंने कहा, "यह अलग डिपार्टमेंट का मामला है. विधानसभा में यह विषय आया था. आने वाले समय में धान उत्पादक किसानों को बोनस की बजाय रकबा के हिसाब से अनुदान देने की योजना पर विचार चल रहा है. किसान जितना धान उपजाएंगे उस हिसाब से उन्हें सरकारी सहायता दी जाएगी. इस साल बोनस मिला है या नहीं मुझे सही-सही जानकारी नहीं है. पता करके बताता हूं."

हालांकि, विधानसभा सत्र में सरकार ने तर्क दिया था कि पड़ोसी राज्य से भी धान हमारे पास आता है और वे बोनस भी मांगते हैं. इसलिए सरकार पैसा सीधे अपने धान उत्पादकों के खाते में जमा करना चाहती है.

खरीफ मार्केटिंग सीजन 2020-21 में महाराष्ट्र के किसानों को धान बेचकर कुल 3547.32 करोड़ रुपये मिले. यह धान के एमएमपी के रूप में मिलने वाली सार्वधिक रकम है. जबकि 2021-22 में अब तक सिर्फ 2618 करोड़ रुपये ही मिले हैं.

महाराष्ट्र में 2020-21 में बढ़कर 6,24,292 किसानों को धान घाटे का सौदा के एमएसपी का लाभ मिला था. वर्तमान सीजन यानी 2021-22 में 20 मार्च तक सिर्फ 474855 किसान ही लाभान्वित हुए हैं. साल 2016-17 में सिर्फ 149279 किसानों ने ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान बेचा था.

यहां सबसे ज्यादा धान महाराष्ट्र की राइस सिटी कहे जाने वाले गोंदिया जिले के किसान बेचते हैं. साल 2020-21 में यहां के किसानों को धान घाटे का सौदा बेचकर 1346 करोड़ रुपये मिले थे. इसके बाद नंबर आता है भंडारा, गढ़चिलोरी और चंद्रपुर का.

महाराष्ट्र में 2020-21 के दौरान 34.47 लाख धान का उत्पादन हुआ था, जो 2019-20 में 28.97 लाख मिट्रिक टन था. बताया जा रहा है कि उत्पादन में वृद्धि के पीछे बोनस अहम वजह है. 2021-22 में भी यहां 34.55 लाख टन धान घाटे का सौदा उत्पादन का अनुमान है.

प्रदेश में 2020-21 के दौरान 19 लाख मिट्रिक टन धान खरीदा गया. जबकि 2019-20 के दौरान 17.42 लाख टन एवं 2018-19 में 8.66 लाख मिट्रिक टन की सरकारी खरीद हुई थी. इससे पहले 2016-17 में यह सिर्फ 4.61 लाख मिट्रिक टन था.

सवाल उठ रहा है कि राज्य सरकार धान की फसल को हतोत्साहित करना चाहती है. इसलिए उसने बोनस पर रोक लगा दी है. जब किसान धान की खेती करके घाटे में जाएंगे तो वो खुद इससे दूर हो जाएंगे. बता दें कि नीति आयोग राष्ट्रीय स्तर पर धान की खेती कम करना चाहता है. हरियाणा में तो धान की खेती को कम करने के लिए अभियान चल रहा है. जिसके तहत राज्य सरकार धान की खेती का त्याग करने वाले किसानों को 7000 रुपये प्रति एकड़ की दर से आर्थिक मदद दे रही है.

राजनीतिक दबाव में हरियाणा रोडवेज का घाटे का सौदा

Gurugram News Network - शहर, जिले व राज्य की बेहतर कनेक्टिविटी के लिए चलाई जा रही हरियाणा रोडवेज अब विभाग के गले की फांस बन गई है। राजनीतिक दबाव में कई रूट ऐसे हैं जो भारी भरकम घाटा होने के बावजूद भी चलाए जा रहे हैं। जैसे ही विभाग इन रूटों को बंद करता है तो विधायक समेत कई नेता गांवों के सरपंच समेत अन्य विभाग के आला अधिकारियों पर रूट को दोबारा शुरू करने के लिए दबाव बनाते हैं। इन घाटे के रूटों पर आय ना होने के कारण आला अधिकारी कंडक्टर पर अपना गुस्सा निकालते हुए उन्हें नोटिस जारी कर रहे हैं।

दरअसल हरियाणा रोडवेज द्वारा चंडीगढ़ समेत कई रूटों पर बस चलाई जा रही है। इनमें सवारियों की संख्या 20 से भी कम है। यह सभी वह रूट हैं जिन पर ग्रामीणों द्वारा बस चलाने की विभाग के अधिकारियों विधायक सांसद समेत अन्य राजनेताओं से मांग की जाती है। ग्रामीणों के आग्रह पर पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इन रूटों पर बस सेवा शुरू कर दी जाती है लेकिन घाटा होने पर इन्हें बंद कर दिया जाता है। सूत्रों के मुताबिक जैसे ही यह रूट बंद होते हैं तो ग्रामीण फिर से विधायक सांसद अथवा अन्य राजनेताओं के पास पहुंच जाते हैं और वह को दोबारा शुरू करने के लिए आग्रह करते हैं।

अपनी राजनीति चमकाने के लिए यह राजनेता अधिकारियों पर दबाव बनाकर दोबारा से रूट शुरू करवा देते हैं। हैरत की बात यह भी है कि ज्यादातर रूट ऐसे हैं जिन पर कई जिलों व राज्यों के बस डिपो पर समय ही नहीं दिया जाता जिसके कारण उन्हें सवारी नहीं मिल पाती और बस में सवारियों की संख्या 10 से 12 रह जाती है। इससे बस के आने जाने का डीजल खर्च भी पूरा नहीं निकल पाता। सूत्रों की माने तो इस वक्त सबसे ज्यादा घाटे का रूट गुड़गांव से पटौदी झज्जर रोहतक होते हुए चंडीगढ़ का है। यह रूट पटौदी विधायक सत्यप्रकाश जरावता की सिफारिश पर शुरू किया गया था।

वह इस तरह के रूटों को जारी रखने के संदर्भ में जब हरियाणा रोडवेज के जीएम एकता चोपड़ा से बात की गई तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उधर मामले में जब पटौदी विधायक सत्यप्रकाश जरावता से बात की गई तो उन्होंने वर्तमान में केरल में होने की बात कहकर मामले को टाल दिया और वापस आकर इस विषय पर बात करने के लिए कह दिया।

रेटिंग एजेंसी इक्रा: उत्पादकों के लिए घाटे का सौदा है प्राकृतिक गैस का उत्पादन

जनता से रिश्ता वेबडेस्क: भारत में ज्यादातर क्षेत्रों में प्राकृतिक गैस का उत्पादन अपस्ट्रीम उत्पादकों के लिए घाटे का सौदा बना हुआ है। रेटिंग एजेंसी इक्रा ने कहा कि सरकार द्वारा तय गैस के दाम अपने निचले स्तर पर बने हुए हैं और इससे उत्पादन पर नुकसान हो रहा है। एक अप्रैल से छह महीने के लिए घाटे का सौदा घरेलू गैस का मूल्य 1.79 डॉलर प्रति इकाई (एमबीटीयू) तय किया गया है। नया रंगराजन फॉर्मूला लागू होने के बाद यह इसका सबसे निचला स्तर है।

इसके अलावा गहरे पानी, अत्यधिक गहरे पानी, उच्च तापमान और उच्च दबाव वाले क्षेत्रों से उत्पादित गैस मूल्य की अधिकतम सीमा अप्रैल-सितंबर, 2021-22 के लिए 3.62 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू तय की गई है, जो अक्तूबर-मार्च, 2020-21 के लिए तय मूल्य सीमा 4.06 डॉलर प्रति इकाई से 10.8 प्रतिशत कम है। इक्रा ने कहा कि इससे ऐसी परियोजनाओं का विकास प्रभावित हो रहा है।

इक्रा ने सरकार द्वारा अधिसूचित गैस कीमतों पर टिप्पणी में कहा कि, 'यह स्थिति घरेलू उत्पादकों के लिए प्रतिकूल है, लेकिन इससे गैस उपभोक्ताओं को फायदा होगा।' रेटिंग एजेंसी के अनुसार, इतने कम दाम पर भारतीय अपस्ट्रीम उत्पादकों के लिए ज्यादातर क्षेत्रों से गैस उत्पादन घाटे का सौदा बना हुआ है। हालांकि, तेल क्षेत्र सेवाओं/उपकरण की लागत में इस दौरान कुछ कमी आई है। इक्रा ने कहा कि अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट से गैस उत्पादकों की प्राप्तियां कुछ बढ़ेंगी, लेकिन इससे कम ही भरपाई हो पाएगी।

इस संदर्भ में इक्रा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष और समूह प्रमुख (कॉरपोरेट क्षेत्र रेटिंग्स) सब्यसाची मजूमदार ने कहा कि, 'आगे चलकर अत्यधिक आपूर्ति की वजह से घरेलू गैस के दाम निकट से मध्यम अवधि में निचले स्तर पर बने रहेंगे। इससे घरेलू उत्पादकों के लिए प्राप्ति अच्छी नहीं रहेगी। हालांकि, इस दौरान ओएनजीसी और रिलायंस इंडस्ट्रीज/बीपी जैसी कंपनियां गैस उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि करेंगी।'

अखबारों में विचार अब घाटे का सौदा!

‘दरअसल’ बाबूजी के स्तंभ का नाम था जो उन्होंने जीवन पर्यंत लिखा। अखबारों में स्तंभ लेखन की ललक ‘दरअसल’ पढ़ते-पढ़ते ही जगी। मैं आज जो कुछ भी हूँ उनकी दीक्षा, उनके स्नेह और सीख की बदौलत हूँ। मुझपर उनकी छाया नहीं होती तो शायद किन्हीं सरकारी-गैर सरकारी दफ्तरों के रेगिस्तान में आज लाल-पीला होकर रिटायरमेंट का इंतजार कर रहा होता।

वे एक संस्था थे, जिन्होंने कीमत और मूल्य में हमेशा फर्क बनाकर रखा। उनके नेतृत्व में देशबंधु ‘पत्र नहीं मित्र’ तो था ही उससे भी बढ़कर वह पत्रकारिता का शांतिनिकेतन था। उन्हें याद करते हुए..आज के दौर की पत्रकारिता पर एक लेख को पुनर्प्रस्तुत कर रहे हैं..

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दरअसल/जयराम शुक्ल

पत्र-पत्रिकाओं में एक दिलचस्प होड़ प्रायः देखने को मिलती है। होड़ यह दावा स्थापित करने के लिए है कि बाजार में सबसे प्रभावी उपस्थिति हमारी है। कोई पीछे नहीं रहना चाहता एक ही सर्वे और रेटिंग एजेंसी के निष्कर्ष पर सबकी अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं। यह विग्यापन पाठकों लिए नहीं है,बाजार के लिए है। उत्पादकों और रिटेलरों को रिझाने के लिए है कि वो हमी हैं जो आपके उत्पाद की महिमा सबसे ज्यादा ग्राहकों तक पहुँचा सकते हैं। संदेश बड़ा साफ है अखबार अब विचारों के संवाहक नहीं बाजार के प्रवक्ता हैं।

दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने का दावा करने वाले ऐसे अखबार में मैंने कुछेक साल काम किए हैं जिसके मालिक को हमेशा यह बात सालती थी कि ये जो संपादकीय पेज है न, वो कुछ नहीं अपितु वेस्टेज आफ स्पेश है। दैवयोग से मैं उसी पन्ने का काम देखता था जो प्रबंधन की नजर में आज से दस साल पहले ही अखबार का सबसे गैरजरूरी और फालतू समझा जाने लगा था। फिर धीरे-धीरे संपादकीय दो से एक हुई, उसके शब्द घटते-घटते दो, ढाई सौ तक आ गए। गंभीर की जगह रोचक और लुभावन सामग्री ने ले लिया। अब तो हफ्ते में कई दिन अखबार में यह पेज ही ढूँढे नहीं मिलता।

यह मंथन भी तभी से शुरू हुआ है कि संपादकीय पन्ने का सफेद हाथी पालने की बजाय इसका भी “स्पेश सेल” किया जाए। मेरा अनुमान है कि जल्दी ही इस पेज का स्पेश भी विग्यापन के लिए बुक होना शुरू हो जाएगा।

स्पेश सेल का बिजनेस, जी हाँ टाइम्स आफ इंडिया के मालिक समीर जैन ने किसी विदेशी अखबार को दिए गए इंटरव्यू में बड़ी ईमानदारी से इस बात को स्वीकार किया कि वे अखबार में स्पेश सेल का बिजनेस करते हैं।

अब विचार तो अनुत्पादक कोटि का आयटम है। लिखने वाले पर खर्चा अलग से। एक पेज में कितने कालम सेंटीमीटर हैं और उसका प्रीमियम रेट क्या है यदि उससे एक धेला भी नहीं निकलता तो प्रबंधन की दृष्टि से वह घाटे का सौदा है।

अँग्रेज़ी के लेखकों तो कुछ पारिश्रमिक( अमेरिकी-यूरोपीय अखबारों से पचास गुना कम) मिल भी जाता है लेकिन नब्बे फीसद हिंदी लेखक अभी भी फोकट फंडी हैं।

मुझे इस बात के भी अनुभव हैं कि कई नामधारी लेखक इस बात के लिए अनुनय करते हैं कि उन्हें बस छाप दीजिए पारिश्रमिक कोई इश्यू नहीं। कई मामलों में लेखक ही डेस्क इंचार्ज को उपकृत करते हैं।

यह एक अलग खेल है। आजकल अखबारों में छपने वाले लेखों की भाषा, उनकी पक्षधरता, उससे निकलने वाली मूलध्वनि से आप आसानी से समझ सकते हैं कि लेखक किसके लिए काम कर रहा है। अखबारों से पारिश्रमिक के नाम पर भले ही धेलाभर न मिले पर जिनके लिए लिखा जा रहा है वे ठीकठाक भरपाई कर देते हैं।

यहाँ पर एक फंडा और काम करता है। वह यह कि जिस तरह अखबार ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों तक पहुँचने का दावा करते हैं उसी तरह ये लेखक ज्यादा से ज्यादा अखबारों में छपने का दावाकर कारपोरेट हाउसों और राजनीतिक प्रतिष्ठानों से कान्टैक्ट हाँसिल करते हैं। अब यह खुला खेल है अखबार मालिक,लेखक दोनों समझते हैं एक तरह से यह म्यूट अंडरस्टैंडिंग है।

एक नई प्रवृत्ति और पनपी है। सेलीब्रटीज से लिखवाना। कई पत्र-पत्रिकाओं में सेलीब्रटीज और बड़े नेताओं के नाम से छपे लेख से आप एक पाठक की हैसियत से चकित या प्रभावित होते होंगे कि ये कितने बड़े बौद्धिक हैं।

पंचानबे फीसद मामलों में होता यह है कि बेचारा उप संपादक लेख की काँपी तैयार करता है, वही सलेब्रटीज या नेता के सिकेट्रीज के पास जँचने को जाती है। फिर उसमें उन महापुरूषों का नाम टाँककर फोटो के साथ लेख बनकर छप जाती है। पाठक खुश हो लेते हैं कि वाह क्या उम्दा विचार हैं.

कई मामलों में बड़े नेताओं और सेलीब्रटीज के नामों से छपने वाले लेखों के एवज में विग्यापन दर के हिसाब से उल्टे अखबार को ही भुगतान किए जाते हैं। यह काम लायजनिंग देखने वाली बड़ी कंपनियां करती हैं और वही कई गिरामी लेखकों से घोस्ट या शैडो रायटिंग के लिए अनुबंध करती हैं।

एक महान पत्रिका के पिछले कई महीनों के अंकों को तजबीज रहा हूँ। इसमें अब कुछ समझ में ही नहीं आता कि क्या एडवर्टोरियल है और क्या एडिटोरियल। जो एक महीन सी रेखा इन दोनों को विभक्त करती थी संपादन के प्रबंधकीय कौशल ने उसे भी इरेज कर दिया।

कोई भाषाई फर्क नहीं, हो भी कैसे क्यों कि विग्यापन के काँपी राइटरों को संपादकों ने स्थानापन्न कर दिया है। इसकी वजह भी पार्टी का आग्रह ही होता है जो यह चाहती है कि इसे ऐसा प्रस्तुत किया जाए ताकि पाठकों..माफ करिए ग्राहकों को यह संदेह न हो कि यह विग्यापन या अपना प्रचार है।

ग्राहकों-पाठकों को चकराए रखने की कला ही अब सफलता का पैमाना है। विचार और बाजार में अच्छा खासा घालमेल हो गया है। अखबारों से विचार खारिज नहीं हुए हैं अपितु उनका बाजार के साथ फ्यूजन हो गया है।

हाँ..फ्यूजन! एक मजेदार उदाहरण समझिए। साल में पंद्रह घाटे का सौदा दिन का पितरपक्ष आता है। हिंदू कर्मकाण्ड के हिसाब से इन दिनों कोई शुभ काम करना निषेध माना जाता है। नई वस्तुओं की खरीददारी भी नहीं होती। यानी के ये पंद्रह दिन बाजार की मंदी के होते हैं। बाजार की मंदी का मतलब अखबारों के विग्यापन की मंदी। अब इस बार जब पितरपक्ष आए तो गौर से देखिएगा।

कई नामधारी ज्योतिषियों से यह लिखवाया जाता है कि पितरपक्ष की खरीदारी कितनी शुभ होती है, इन दिनों नई वस्तुओं के खरीदने से सात पीढी तक के पितर तृप्त हो जाते हैं। उन्हें अपनी घाटे का सौदा संतानों पर गर्व होता है और वे स्वर्ग से आशीर्वाद की वर्षा करते हैं। इसी बीच अखबारों के वैचारिक पन्ने में कई घोर प्रगतिवादी लेखक भी प्रकट हो जाएंगे जो यह साबित करेंगे कि पितर-सितर कुछ नहीं होता, ये दकियानूसी बातें हैं, देशवासियों को अंधविश्वास के खोल से बाहर आना चाहिए। बाजार अपने हिसाब से विचार परोसता है, उसे ट्विस्ट भी करता है और उसकी तिजारत भी।

विचार को बाजार में बदल दिये जाने की बातें जाननी है तो टाइम्स आफ इंडिया समूह की यात्राकथा जानिए। यह समूह आज भी देशभर के मीडियाबाजार के लिए आयकानिक है। सन् नब्बे के पहले तक यह प्रकाशन समूह अपनी साहित्यिक और वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता था। इस समूह की पत्रिकाओं में चार लाइन भी छपना एक सर्टीफिकेट की तरह होता था। धर्मयुग,दिनमान,सारिका,इलस्ट्रेटेड वीकली, खेल,फिल्म और कई ऐसी पत्रिकाएं निकलती थीं जो उस दौर के प्रतिमान गढ़ती थीं। अग्येय, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल, प्रीतीश नंदी, मुल्कराज आनंद, राजेन्द्र माथुर, विद्यानिवास मिश्र जैसे कितने दिग्गज साहित्यकार और संपादक इस समूह के साथ जुड़े थे। इन्होंने पत्रकारों और साहित्यकारों की कई कई पीढियां गढ़ी।

नब्बे के उदार वैश्विकरण के शुरू होते ही विचारकों के साथ विचार भी अप्रसांगिक होते गए। और स्थिति यहाँ तक आ पहुँची जब एक मालिक डंके की चोट पर यह उद्घोष करता है कि हम अखबार विचार के लिए नहीं बाजार के लिए निकालते हैं।

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